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अयोध्या में वृद्धाश्रम की हकीकत

अयोध्या में वनवास को मजबूर बजुर्गों का दर्द यक्ष ने अगला प्रश्न पूछा, हे धर्मराज! संसार में सबसे तेज़ चलने वाली चीज़ कौन सी है? युधिष्ठिर ने मुस्कुराकर जवाब दिया मन, जिसकी गति को कोई मात नहीं दे सकता। किताब रखकर मैं सोचने लगी कि सचमुच मन कितना चंचल है, कितनी जिज्ञासा है इसमें हर प्रश्न के पीछे कैसे भागता रहता है। एक सवाल जो अंदर ही अंदर मुझे कचोट रहा था, बार बार अपने उत्तर को पाने के लिए मुझे ढकेल रह था वह था एक शब्द क्यूं?  इस शब्द ने मुझमें ना जाने कितनी ही प्रश्नों की शाखाओं को पल्लवित किया था। अब उनके उत्तर जानने की मेरी इच्छा लगातार प्रबल हो रही थी। इन प्रश्नों के हल ढुढ़ने घर से थोड़ी दूर स्थित वृद्धाश्रम के लिए निकली। सोचती जा रही थी कि मैं उनसे कैसे मिलूंगी? क्या वह मुझसे बात करना पसंद करेंगे? वो मुझसे मिलने आएंगे भी या नहीं? ऐसे ही ना जाने कितने विचार आने लगे और मेरी कल्पना के बादल घने होने लगे। फिर अचानक अपनी दादी की कहीं बात याद आ गई, जो कहती हैं जब भी मुझसे मिलने आना बचपन वाला मन साथ लाना( अवधी में हमसे मिलय आओ तौ आपन बचपना साथे लावा करौ, और कौनो सकल नीक नाहीं लागत तोहार)। इसी ख्याल के साथ मैं हल्का सा मुस्कुराई और फलाहार लेकर मैं उन देवतूल्य बजुर्गों के बसेरे में पहुंच गई। कोरोना से बचने के लिए सारी सावधानियों के साथ मुझे अंदर जाने की अनुमति मिली तो मैंने उनसे बात करने की इच्छा ज़ाहिर की, मेरी कल्पना से परे उन झुर्रियों वाले गालों पर एक मुस्कान ख़िल उठी। उनके होठों से पहले उनकी आंखों ने मुझसे बातें करनी शुरू कर दीं ओर कुछ देर बाद भावनात्मक दीवारें टूटने लगी। कोने में बैठी दादी जो हाथ में माला लेकर मुझे ही देख रही थीं, उनकी आंखों में उत्तर ना देने और पहले मेरे बारे में जानने की अभिलाषा दिखी। मैंने उन्हें अपने बारे में बताया और फिर उनसे घर से दूर आने का कारण पूछा, उनकी नम आंखो के आगे उनकी मुस्कान फ़ीकी पड़ने लगी, और भरे गले के साथ वो बोल पड़ीं “हम हियां सुख से रहय आई हई, हम चाहित ही कि मइडम (बहू) कै मुंह ना फूलै, हम न रहब तौ बेटवा सुख से रहे।” वहां के एक कार्यकर्ता ने मुझे बताया कि इनकी बहू ने इनकी सेवा करने से मना कर दिया, इसलिए परिवार में कलह होने लगी, जिसके बाद से वृद्धाश्रम को इन्होंने अपना घर बना लिया। कुछ ही दूर बैठे बाबाजी ये बातें सुनकर उनकी आंखों से घर की याद छलक पड़ी, उन्होंने बताया कि वह बैंक मैनेजर के पिता हैं। “मैं अपने परिवार को जीवन के अंतिम क्षणों में खुश रखना चाहता था, इसलिेए घर छोड़ दिया क्योंकि मैं अपनी बहू की सो कॉल्ड स्मार्ट सोसाइटी में फिट नहीं बैठ रहा था, मुझे परिवार का सदस्य बताने में भी उसे शर्म आती थी। मुझे अनदेखा करने की उसकी आदत ने मुझे इस वृद्धाश्रम में आने पर मजबूर कर दिया। मैं बातें कर ही रही थी कि पीछे से किसी ने मुझे आवाज़ लगाई “मैडम चाय पीने का टाइम हो गया है अभी इन्हें जाने दें” वह आश्रम की केयर टेकर थीं, चेहरे के भाव और बात के वजन से मेरे मन में जो विचार आने लगे मैंने वहीं उनपर पूर्णविराम लगा दिया। वहीं टहलते हुए मैंने कहा कि इस महामारी के दौरान उन्हें काढ़ा पीना चाहिए। दबी आवाज़ में उत्तर मिला “जब मिले तब तौ पियब”। जब तक मैं उस आवाज़ के मालिक तक पहुंचती,शायद वहां की तेज़ कानों वाली केयर टेकर ने यह आवाज़ सुन ली, वह चीखती हुई बोली “जब हम इनको काढ़ा दिए तो ये चाय-चाय चिल्लाने लगे, तो हम भी कहे अब पिएं चाहे मर जाएं, अब हमसे कोई मतलब नहीं है।” पलभर के लिए मैं सहम गई की जो केयर टेकर किसी मीडिया वाले के समाने ऐसे व्यवहार कर रही हैं तो फिर बिना किसी अंकुश के कैसे व्यवहार करती होंगी? मैं सोच ही रही थी कि मुझे कई चेहरे दिखे जो उस चिल्लाहट पर मुस्कुरा रहे थे। मुझे बताया कि यह शाम को मिलने वाला स्नैक्स है जो जिसका चाय की चुस्की के साथ मनोरंजन के लिए उपयोग किया जाता है। चाय पीने के बाद हमारी बातें फिर से शुरू हुईं, अब हम काफ़ी घुल मिल गए थे और ऐसा लग रहा था जैसे वे आज अपने अंदर की हृदय विदारक बातें सुनाकर अपना मन हल्का करना चाहते हों। अब वह पहले से ज्यादा मेरे साथ चर्चा में शामिल होने लगे। वहां बैठकर मैं वो महसूस कर रही थी जो शायद कभी नहीं किया। मेरे वहां होने से शायद उन्हें किसी अपने के होने का एहसास हो रहा था। मैं भावनाओं में डूब ही रही थी कि कांपते हाथों की एक धूमिल छवि मुझे अपनी ओर आने का इशारा करती हुई दिखी, जब मैंने तसल्ली से उन्हें देखा तो, उनकी ठंडी आंखों की शीतलता मुझे भी महसूस होने लगी, वह ज़रा सा मुस्कराई और कांपते स्वर में कहने लगीं “ई हमरे  सबकै दूसर घर आय, तू चिंता ना करो बिटिया, अब हम सबही खइहंस से दूर हई  सुख मा अही, बस कभौ-कभौ मोहाय जाइत थी (ये हम बजुर्गों का दूसरा घर है इसलिए तुम चिन्ता मत करो बस कभी कभी अपने पहले घर की बहुत याद आती है)। उनकी बातें सुनकर और उस मुस्कान को देखकर मुझे अपनी दादी की बातें याद आ गई। मैंने उनसे उत्सुकतावश पूछा कि जब वह ऊबते हैं तो क्या करते हैं जवाब आया- का करब हम भगवान कै नाम ली थी। उन्होंने मेरे कहने से पहले ही भजन गाना शुरू कर दिया, फिर सब उनका साथ देने लगे। तालियों और भजन की धुन चारों ओर गूंजने लगीं, उसी बीच एक भारी स्वर ने मुझे भी उनके साथ गाने का आमंत्रण दिया। हालांकि उन्हें देखने में मुझे ज्यादा आंनद आ रहा था,लेकिन उस आमंत्रण के बाद मैं भी उल्टे सीधे स्थाई, अंतरा बुदबुदाने लगी। उन सबके चेहरे के भाव, उनके सूखे होठों की मुस्कान, नम ठंडी आंखें मुझे ना जाने कैसी ऊर्जा दे रही थीं, उनके बीच बैठकर ऐसी खुशी मिल रही थी, जैसी मैंने पहले कभी महसूस नहीं की थी। एक अलग सा एहसास जो उनकी मुस्कान से और भी ज्यादा गहरा हो रहा था। मैं जो सवाल ले कर गई थी उसका उत्तर तो मुझे मिल गया, लेकिन उन उत्तरों को सहेजते सहेजते ना जाने मैं खुद में ही कहीं उलझने लगी, सोचने लगी कि क्यूं उम्र के अंतिम पड़ाव में जब उन्हें अपनो की सबसे ज्यादा ज़रूरत थी, तब वृद्धाश्रम में वनवास के लिए छोड़ दिया जाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की नगरी अयोध्या में जहां बड़े बुजुर्गों को ईश्वर तुल्य मानने की परम्परा है, आज उनकी यह दशा क्यों है ? आज क्यूं उन वट वृक्षों के जड़ों की कोई कीमत नहीं रही, जिसकी शाखाओं के अनेक पत्ते पुष्पित व पल्लवित हैं। तालियों की गूंज अब ख़त्म हो गईं, भजन भी समाप्त हो चुका था, मैं चेहरे पर झूठी मुस्कान और नम आंखों के साथ उन देवात्माओं को देखती रही, जो अपनी फीकी मुस्कान के पीछे ना जाने कितना ही दर्द छुपा रहे थे।अदिति त्रिपाठी(लेखिका पत्रकारिता की छात्रा हैं साथ ही दादीदादा फाउण्डेशन से जुड़ीं है।)

Written By Aditi Tripathi

Edited By Shiksha Dev

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